संसार को आर्य कैसे बनायें?

प्रथम साधन – अपना आर्य जीवन
महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना इस उद्देश्य से की थी कि संसार भर में वैदिक धर्म का प्रचार करके मनुष्यमात्र को आर्य बनाया जाय। उद्देश्य जितना महान है उतना ही विशाल भी है और उसकी पूर्ति उससे भी अधिक कठिन प्रतीत होती है। कठिनाई के अनेक कारण हैं। उन कठिनाइयों में से सबसे बड़ी(कठिनाई) यह है कि आर्यत्व स्वयं एक कठिन वास्तु है। ईसाई उसे कहते हैं जो ईसाई पादरियों द्वारा बतलाये गये सिद्धान्तों को स्वीकार करता है। मुसलमान वह समझा जाता है जो हज़रत मोहम्मद और कुरानशरीफ पर एत्काद (विश्वास) रखे। इस दृष्टि से ईसाई अथवा मुसलमान को पहचानना बहुत आसान है। परन्तु आर्य शब्द को व्याख्या इतनी सरल नहीं। आर्य शब्द देववाणी का है। इसका अर्थ है श्रेष्ठ। जिसके कर्म और विचार दोनों श्रेष्ठ हों वह आर्य कहलाता है। महर्षि दयानन्द ने अपने स्थापित किये हुए समाज का नामकरण न तो अपने से किया और न किसी ग्रन्थ के नाम से। उन्होंने समाज का नाम ‘आर्य समाज’ और उसके सदस्यों का नाम आर्य रखा। इसकी यही सुन्दरता है कि महर्षि ने नामकरण द्वारा ही अपने अभिप्राय को सर्वथा स्पष्ट कर दिया। वह आर्यसमाज को अन्य मत मतान्तरों की तरह कोई पन्थ नहीं बनाना चाहते थे और न ही यह चाहते थे कि केवल किन्हीं मन्तव्यों को मानकर कोई व्यक्ति धार्मिक समझा जा सके। वह धार्मिक तभी समझा जा सके जब उसके कर्म भी आर्यत्व लिये हुए हों।
“आर्य किसे कहते हैं?” इस प्रश्न का सरलतम उत्तर यह है कि जिसके विचार सुद्ध और जीवन धर्मानुकूल हो वह आर्य है।
दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि धर्म क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द ने कशी के शास्त्रार्थ में जो उत्तर दिया था वह अत्यन्त सरल और सुबोध हैं। आपने मनु का यह श्लोक उद्धृत किया था –
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधोएतद्दशकं धर्मलक्षणम्।।
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध जो मनुष्य इन दस गुणों को अपने जीवन में धारण कर लेता है, वह धार्मिक होने से आर्य पदवी के योग्य है।
वैदिक सिद्धान्त सत्य होने के कारण मनुष्य के जीवन को धार्मिक बनाते है। सत्य सिद्धान्त सत्यकर्म के आधारभूत होने कारण धार्मिक जीवन कल लिये आवश्यक है। परन्तु यदि केवल सिद्धान्त तो हों परन्तु उनके अनुसार कर्म न हों तो मनुष्य धार्मिक या आर्य नहीं कहला सकता। इस विचार परम्परा से यह बात सपष्ट हो जाती है कि वही मनुष्य आर्य कहलाने के योग्य है जिसका जीवन धर्मानुकूल और श्रेष्ठ हो।
ऐसे मनुष्य के बाह्य चिन्ह क्या होंगे? किसी विशेष प्रकार के तिलक आदि धार्मिकता या आर्यत्व के चिन्ह नहीं हो सकते। यदि वस्तुतः उसके जीवन में धर्म के लक्षण विद्यमान हैं तो उसके चेहरे पर शान्ति होगी, व्यवहार में उदारता और क्षमा होगी। वह क्रोध या लोभ के वश में नहीं आयेगा। उसके लिए सार्वजनिक भ्रष्टाचार अर्थात् रिश्वत लेना या देना सर्वथा असम्भव होगा। सारांश यह है कि उसका जीवन अच्छे और ऊँचे जीवन का एक आदर्श होगा। वह सब के साथ प्रेम का बर्ताव करेगा, दीन दुखियों की सहायता करेगा और अत्याचारियों के सामने दृढ़ता से खड़ा रहेगा। भय निजी जीवन में अच्छा पुत्र, सदाचारी, गृहस्थी और अच्छा नागरिक होगा।
ये सब आर्यत्व के चिन्ह हैं। यह स्पष्ट है कि यदि हम मनुष्यमात्र को वैदिक धर्म का उपदेश देकर आर्य बनाना चाहते हैं तो सबसे पहला कार्य जो हमें करना चाहिए वह यह है कि हम अपने आपको आर्य बनायें।
“स्वयं बद्धा परान्ह कथं मोचयेत्”
जो स्वयं बंधा हुआ है वह दूसरों को बन्धनों से क्या छुड़ायेगा। यदि हमारे मन में और हमारे आचरण में आर्यत्व नहीं तो हम वैदिक धर्म और आर्यसमाज के विषय पर चाहे कितने ही व्याख्यान दें और उन व्याख्यानों में महर्षि दयानन्द का नाम लेकर कितनी ही तालियाँ बजवाएं, श्रोत्रोताओं पर हमारे शब्दों का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। इसके इए विपरीत यदि हम मन, वाणी और कर्म से आर्य अरु सच्चे वैदिकधर्मी हैं तो हमारे चार सीधे सादे शब्द भी लोगों के हृदयों में परिवर्तन उत्पन्न कर सकते हैं। भरा हुआ घड़ा बोलता कम है परन्तु लोगों की प्यास को बुझाने को अधिक शक्ति रखता है। अधभारा घड़ा छलकता और बोलता है। वह कुछ देर के लिए प्रभाव जमा सकता है परन्तु अन्त में उसी का मान होगा जो भरा हुआ है। जो मनुष्य आर्यत्व से पूर्ण है वह यदि मौन भी रहे तो केवल उसके जीवन का दृष्टान्त दूसरों को आर्य बनाने के लिए पर्याप्त है।
आर्य समाज का इतिहास लिखने के प्रसंग में मुझे पुराने आर्य सामाजिक पत्रों को पढ़ने और आदि काल के आर्यजनों के जीवनों पर विचार करने का अवसर मिला है। जिन महानुभावों ने महर्षि के बोये हुये बीज को सींच कर वृक्ष रूप में पहुँचाने का श्रेय प्राप्त किया उनके जीवनों की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे क्रियात्मक धर्म के नमूने थे। वह सच्चे थे और निर्भय थे। खोभ या भय के कारण अपनी टेक को छोड़ना उनके स्वभाव के विरुद्ध था। किसी नगर या ग्राम में यदि एक भी ऐसा आर्य होता था तो आस-पास के लोग उसे बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। कभी-कभी यह भी होता था कि लोग उसके विचारों से सर्वथा असहमत हों परन्तु फिर भी उस निर्भय, सच्चे और व्यवहार के खरे आर्य समाजी के जीवन से प्रभावित होकर लोग आर्य समाज की ओर झुक जाते थे।
उस समय आर्य समाज का दायरा छोटा था। आज बहुत बढ़ गया है। तब देश का वातावरण हमारे विचारों के प्रतिकूल था। अब बहुत अनुकूल हो गया है। तो भी यदि हम यह अनुभव करते हैं कि हमारे प्रचार की शक्ति कम हो गई है, नौजवान आर्य समाज की ओर नहीं झुकते या हमारा संगठन बिखर गया है तो उसका मुख्य कारण यही है कि सामाजिक विस्तार के बढ़ जाने पर व्यक्तिगत जीवनों की शुद्धता पर हमारा इतना ध्यान नहीं रहा। साधारण जनता हमारे सिर अपने से ऊँचे नहीं समझती। मेरा अर्यजनों से यह निवेदन है कि बस दुसरे धर्मों और व्यक्तियों के जीवनों की कड़ी आलोचना करने से पूर्व अपने-अपने जीवनों पर दृष्टि डालें और देखें कि उनमें क्या न्यूनता (कमी) है। उस न्यूनता को पूरा करके ऐसे आर्य बनने का यत्न करें कि उनका जीवन स्वयं उपदेशात्मक बन जाय। यदि हम इस ओर विशेष ध्यान देंगे तो हमारी यह शिकायत जाती रहेगी कि आर्य समाज का प्रचार रुक गया है।